मोहन राकेश के तीन नाटक : एक अनूठा रंग-प्रयोग

मोहन राकेश आधुनिक हिन्दी रंगमंच के सुप्रसिद्ध नाटककार हैं l उन्होंने तीन नाटक लिखे – ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ l यूँ उनका एक अपूर्ण नाटक ‘पैर तले की जमीन’ भी था जिसे राकेश के मरणोपरांत कमलेश्वर ने पूरा किया, किन्तु वह अपनी कोई ख़ास पहचान बना नहीं पाया l अपने सशक्त कथ्य और शिल्प के बूते राकेश के तीनों नाटक रंगकर्मियों को गाहे-बगाहे आकर्षित करते रहते हैं l इसी आकर्षण का ताजा उदाहरण है, रमा यादव के निर्देशन में हुई प्रस्तुति ‘मोहन राकेश के तीन नाटक’ l यह प्रस्तुति अपने-आप में अनूठी इसलिए थी कि इसमें राकेश के तीनों नाटकों के चुनिन्दा अंशों के साथ उनके ‘विजन’ को दर्शाने की कोशिश की गयी l प्रस्तुति गत 23 सितम्बर 2024 को मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर के प्रेक्षागृह में हुई l

मोहन राकेश आज़ाद हिन्दुस्तान की उस हवा में नाट्य-लेखन शुरू करते हैं जिसमें सम्बन्धों में तेजी से बदलाव हो रहा था l आत्ममुग्धता बढ़ रही थी, विज्ञान-तकनीक के अविष्कार, औद्योगिकीकरण, टूटते संयुक्त परिवार, गाँव से शहर की ओर पलायन – सब मिलकर इंसान के स्वभाव को बदल रहे थे l संवेदना कुछेक खण्डित अनुभूतियों में तब्दील हो रही थी जिन्हें अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य में ‘द्वन्द्व’, ‘तनाव’, ‘अजनबीपन’, ‘असंतोष’, ‘उलझन’ जैसे शब्दों का आगमन हुआ l मोहन राकेश समकालीन जीवन और हिन्दी के रंग-परिदृश्य – दोनों की ही चुनौतियों और समस्याओं से अच्छी तरह परिचित थे l उनके तीनों नाटक नये परिवेश से उपजी नयी और खण्डित अनुभूतियों को सम्पूर्णता में व्यक्त करने का सफल प्रयास करते हैं l

‘द्वन्द्व’ राकेश के नाटकों की केन्द्रीय विशेषता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ कलाकार और राजसत्ता के साथ भावना और यथार्थ का द्वन्द्व दिखलाता है l ‘लहरों के राजहंस’ में आध्यात्म और भौतिक सुख का द्वन्द्व और चयन न कर पाने की दुविधा है तो ‘आधे-अधूरे’ में आधुनिक महानगरीय परिवार के सदस्यों में तल्ख़ और कटु सम्बन्धों से उपजा तनाव  है l ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ का देश-काल भले ही कालिदास और महात्मा बुद्ध से जुड़ा हो लेकिन इन दोनों ही नाटकों का कथ्य आधुनिक मनुष्य के मानसिक संघर्ष और दुविधा से भी जुड़ा है l कारण और परिस्थितियाँ अलग-अलग होने पर भी ‘द्वन्द्व’ आधुनिक मनुष्य के जीवन की नियति बन चुका है l रमा यादव के निर्देशन में हुई प्रस्तुति तीनों नाटकों में निहित इसी विविध-आयामी द्वन्द्व को पकड़ने की कोशिश करती दिखी l प्रस्तुति की शुरुआत ‘आधे-अधूरे’ की शुरुआत में ‘काले सूट वाले आदमी’ के वक्तव्य से हुई जो जीवन की ‘अनिश्चितता’ को रेखांकित करने वाली थी l ‘आधे-अधूरे’ के दृश्यों के लिए आधुनिक घर के ड्राइंग रूम के सेट का प्रयोग किया गया जो कमोबेश मोहन राकेश के रंग-निर्देशानुसार ही था l ‘आषाढ़ का एक दिन’ और लहरों के राजहंस’ के दृश्यों का परिवेश निर्माण छुट-पुट रंग-सामग्री के साथ रिकार्डिड ध्वनि से हुआ जिसमें क्रमशः मेघ गर्जन व वर्षा और ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ काफ़ी प्रभावशाली रहे l मल्लिका, सावित्री, महेन्द्रनाथ, बिन्नी की भूमिकाएँ एक से अधिक अभिनेता-अभिनेत्रियों ने की l चरित्र की उम्र और स्वभाव में आये बदलाव के अनुरूप यह रंग-युक्ति संतुलित और उपयुक्त रही l मल्लिका के ‘भावना में भावना का वरण’, कालिदास को उज्जैनी भेजने के आग्रह, सुन्दरी द्वारा कामोत्सव का आयोजन, नन्द में अदम्य सुन्दरी-पत्नी और गौतम बुद्ध के प्रति खिंचाव से उपजे द्वन्द्व, सावित्री के घर छोड़ने का निश्चय, महेन्द्रनाथ और अशोक के साथ हुई बहस, बिन्नी द्वारा उस ‘चीज’ को ढूँढने की व्यर्थ कोशिश वाले दृश्य असरदार बन पड़े l दृश्य नाटकों के अनुसार क्रमवार न होकर आपस में गुंथे-मिले थे l सारा कार्य-व्यापार, गतियाँ, मुद्राएँ, वेशभूषा, प्रकाश आदि ‘द्वंद्व’ को ही घनीभूत करते दिखे l मोहन राकेश अपने नाटकों में सुचिंतित रंग-निर्देशों के लिए भी जाने जाते हैं l इस प्रस्तुति में ‘आधे-अधूरे’ के कुछ रंग-निर्देशों का वाचन करने के साथ उन्हें हरकत की भाषा में तब्दील किया गया l राकेश ने रंगभाषा पर चिंतन करते समय उपयुक्त शब्द के चयन के साथ ही प्रदर्शन में उच्चारण की लय पर काफी बल दिया है, जो अभिनय करने वाले कलाकार के लिए बहुत चुनौतीपूर्ण है। इस प्रस्तुति में कई कलाकार इस चुनौती से जूझते दिखे l

इस तरह की प्रयोगात्मक प्रस्तुतियाँ दर्शक से भी अतिरिक्त सजगता की माँग करती है l यदि किसी ने मोहन राकेश के तीनों नाटक नहीं पढ़े हैं तो उनके लिए यह प्रस्तुति समझ से बाहर ही कही जायेगी l हिन्दी रंगमंच की एक बड़ी सीमा यह भी है कि काफ़ी समय, संसाधन और ऊर्जा खर्च करके तैयार की गयी किसी प्रस्तुति के गिने-चुने शो ही होते हैं l कम-से-कम लीक से हटकर तैयार की गयी प्रस्तुतियों के, आवश्यक ‘फीड बैक’ के बाद कई शो होने चाहिए ताकि ‘प्रयोग’ की रचनात्मकता को समझा जा सके l बहरहाल, रंगमंच एक प्रयोगशील विधा है। प्रयोग होते रहने चाहिए,  नयी दिशाएँ तभी खुलेंगी l बहरहाल, रमा यादव द्वारा निर्देशित ‘मोहन राकेश के तीन नाटक’ प्रयोगशीलता की कड़ी में अच्छा प्रयास रहा l

आशा
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
अदिति महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय